विजय त्रिवेदी
चुनाव
लड़ना कोई फंडामेंटल राइट
नहीं
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एस कृष्णमूर्ति से ख़ास बातचीत
यूपीए
सरकार के दस साल पूरे होने
वाले हैं । 2004 में
जब ये सरकार आई थी तब वे मुख्य चुनाव आयुक्त थे । उनकी देखरेख
में एक शांतिपूर्ण,
गैर
हिंसात्मक सत्ता परिवर्तन
हुआ था .एनडीए
से यूपीए सरकार बनने का ।
उन्होंने राजनीति और जम्हूरियत
की शक्ल सुधारने के लिए बहुत
से चुनाव सुधारों का खाका
तैयार किया ,लेकिन
सरकार ने कोई ठोस फैसले नहीं
लिए और इलेक्टोरल रिफोर्म के
लिए पहल नहीं ली ।
राजनेताओं
और सरकारों की ताकत से बेअसर
रहने वाले टी एस कृष्णमूर्ति
।अब चैन्नई में भले ही रहते
हों लेकिन उनकी इच्छा और ताकत
अब भी दिल्ली के सिंहासन को
बेहतर बनाने की रहती है ।
सवाल - ऐसा
लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के
फैसले के ख़िलाफ़ सभी राजनीतिक
दल एकजुट हो गए हैं कि दाग़ी
हैं राजनेता तो अच्छे हैं
,आप
क्या सोचते हैं ।
कृष्णमूर्ति
- सुप्रीम
कोर्ट के जजों ने जो फैसला
दिया था वो एक अच्छा कदम है
हमारी जम्हूरियत के लिए ,
डेमोक्रेसी
की मज़बूती और बेहतरी के लिए
। अब सभी राजनीतिक दल उसके
खिलाफ एकजुट होने लगे हैं ,
सरकार भी साथ
देने को तैयार दिखती है ।
इसका
मतलब मैं समझता हूं कि हमारे
लीडर शार्ट टर्म के फायदे की
बात सोच रहे हैं लांग टर्म के
लिए , क्योंकि
हो सकता है कि शार्ट टर्म में
कुछ दाग़ी लोग पार्टी को जिताने
में मदद कर दें ,
उसके लिए पैसा
जुटाने के काम आए ,
लेकिन लांग
टर्म में उससे नुकसान ही होगा
।
अब य़े मामला सुप्रीम कोर्ट
की बड़ी बैंच के पास है और मुझे
लगता है कि वो फिर से इसी फैसले
पर आगे बढ़ेगी ।
सवाल - राजनेताओं
का मानना है कि कानून बनाना
संसद का काम है ना कि सुप्रीम
कोर्ट या किसी और अदालत का ,और
वे इस पर कानून बना सकते हैं
।
कृष्णमूर्ति
- ये
ठीक है कि कानून बनाना संसद
का काम है ,लेकिन
संसद सुप्रीम नहीं है ,
संविधान
की सु्प्रीमेसी सबसे ऊपर है
। संसद कोई ऐसा कानून नहीं बना
सकती जो संविधान की भावना के
खिलाफ हो और यदि वो ऐसा करती
है तो सुप्रीम कोर्ट उस पर
अपना फैसला सुना सकता है ।
सवाल - लेकिन
राजनेता कहते हैं कि राजनीति
की हकीकत तो ये है कि विरोधी
पार्टियां दूसरे दल के नेताओं
को झूठे आरोपो में फंसा देती
है तो फिर वो तो चुनाव ही नहीं
लड़ पाएंगे ।

ये कोई
राजनीतिक विरोदियों द्वारा
फंसाने जैसा मामला नहीं है
।सवाल है कि क्या आप राजनीति
को साफ करना चाहते हैं या नहीं
।एक बात समझ लीजिए राजनीति
में दाग़ अच्छे नहीं हैं। फिर
दूसरी बात चुनाव लड़ना कोई
फंडामेंटल राइट नहीं है किसी
का , थोड़े
दिन के लिए सस्पेंड हो या तो
कोई फर्क नहीं पड़ता ।
सवाल-
लेकिन
आप किसी को चुनाव लड़ने से रोक
देंगें , ये
भी तो हो सकता है कि वो ऊपरी
अदालत में जाकर छूट जाए ।
कृष्णमूर्ति
- हो
सकता है कि वो ऊपरी अदालत में
जाकर छूट जाए,
लेकिन
इसकी भी तो संभावना है कि उसकी
सज़ा फिर से कन्फर्म हो जाए
तो उसका बेहतर रास्ता हो सकता
है कि फिर फास्ट ट्रैक कोर्ट
बनाइए ताकि जल्दी फैसला हो
जाए।
अदालतों को आप मज़बूत
नहीं बना रहे ,
उनके
पास इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं
है, जज
नहीं है तो उसे दुरस्त कीजिए
।
सवाल - क्या
आपको लगता है कि दाग़ी उम्मीदवारों
या अपराधियों से जम्हूरियत
का बड़ा नुक़सान हो रहा है या
हो सकता है ।
कृष्णमूर्ति
- नुक़सान
हो रहा है या नहीं ,
लेकिन
इसका असर पड़ रहा है हमारी
डेमोक्रेसी पर । अपराधियों
के चुन कर आने से पूरी राजनीति
पर भी असर पड़ रहा है । फिर
मामला एक दो राजनेताओं के
दाग़ी होने का नहीं है ,
उतना
तो चल सकता था लेकिन 30
फीसदी
नुमाइंदे अगर दाग़ी होंगे तो
असर पड़े बिना नहीं रहेगा और
वे ही लोग कानून बना रहे हैं ।
इसलिए
ज़्यादा ज़रुरी है कि राजनीति
में अपराधियों की एंट्री पर
रोक लगे । मैंने अपने वक्त में
चार्ज़शीट लोगों को भी चुनाव
लड़ने से रोकने का सुझाव दिया
था ,लेकिन
उस पर कोई फैसला नहीं हो पाया
।
सवाल - अपराधियों
यानी मसल पावर के अलावा मनी
पावर से भी आप समझते हैं कि
डेमोक्रेसी का या राजनीति का
नुकसान हो रहा है ।
कृष्णमूर्ति
- बिलकुल
, मनी
पावर से हमारी पालिसी पर भी
असर पड़ता है कि सरकार क्या
नीतियां बना रही हैं और आज
हालात ये है कि बिना पैसे के
चुनाव जीतना तो दूर लड़ना भी
मुश्किल हो गया है ।
मनी पावर
की वज़ह से मसल पावर का दखल
बढ़ा है क्योंकि वे लोग चुनाव
के लिए फंड इकट्ठा करने में
भी मदद करते हैं । और इसीलिए
राजनीतिक दल चुनावी चंदे के
बारे में पूरी जानकारी नहीं
देते हैं । 20 फीसद
पैसे का खुलासा भी वे चुनाव
आयोग को नहीं करते ।
सवाल-
अभी
संसद में सूचना के अधिकार में
बदलाव के लिए बिल रखा गया है
क्योंकि मुख्य सूचना आयुक्त
ने 6 बड़ी
पार्टियों को इसके दायरे में
शामिल किया था ।

वैसे मेरा सुझाव दूसरा है
- वो
ये कि एक नेशनल इलेक्शन फंड
बनाया जाए । यानी कोई भी व्यक्ति
या कंपनी या बिज़निसमैन चंदा
किसी राजनीतिक दल या राजनेता
को सीधे नहीं दे बल्कि पूरा
पैसा नेशनल इलेक्शन फंड में
दे दिया जाए और उसका मालिक
चुनाव आयोग हो और आयोग उस पैसे
का इस्तेमाल चुनावों में करे
यदि वो पैसा कम पड़ रहा है तो
फिर सरकार उसमें मदद करे ।
सवाल-
क्या
आपको ये सुझाव प्रेक्टिकल
लगता है कि नेशनल इलेक्शन फंड
बनाया जाए और आयोग उसमें से
पैसा बांटें ।
कृष्णमूर्ति
- शुरु
में हो सकता है कि थोड़ दिक्कतें
आएं । ये ही हो सकता है कि शुरुआती
सालों में पैसा बहुत कम इकट्ठा
हो , सौ-
दो सौ
करोड़ रुपए ,लेकिन
धीरे धीरे वो रकम बढ़ जाएगी
और आप इस चंदे को पूरी तरह टैक्स
फ्री कर सकते हैं ,
सौ
फीसद टैक्स फ्री ।
अभी तो ऐसा
नहीं है ,इससे
कंपनियों को भी कोई परेशानी
नहीं होगी चंदा देने में और
सबके लिए लेवल प्लेइंग फील्ड
हो जाएगा चुनाव मैदान में ,
ये
नहीं कि जिसके पास ज़्यादा
पैसा होगा , वो
ही चुनाव लड़ पाएगा ।
सवाल - चुनावों
में खर्च को कम करने का क्या
एक रास्ता ये हो सकता है कि
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव
साथ साथ कराएं जाएं ,
उससे
काफी असर पड़ सकता है ।
कृष्णमूर्ति
- आज़ादी
के बाद शुरुआती सालों,
मेरे
ख्याल से 1965 तक
तो चुनाव साथ साथ ही हो रहे थे
,लेकिन
बाद में कई राज्यों में विधानसभाओं
में अविश्वास प्रस्ताव की
वज़ह से फिर जब राज्यों में
सरकारें गिरने लगी तो अलग अलग
चुनाव होने लगे और हमारी
व्यवस्था में चुनावों के फैसले
का अधिकार भी मुख्यमंत्रियों
के पास है तो इसके लिए संविधान
में बदलाव करना होगा ।
एक रास्ता
ये भी हो सकता है कि यदि अविश्वास
प्रस्ताव की वज़ह से सरकार
गिर रही हो तो उसी वक्त दूसरे
नेता या पार्टी के लिए विश्वस
प्रस्ताव की व्यवस्था रखी
जाए तब आप रोज रोज चुनाव कराने
की परेशानी और खर्च दोनों से
बच जाएंगे ।
सवाल - आप
फ्किस्ड टर्म की बात कर रहे
हैं कि नेता बदल जाए ,सरकार
बदल जाए,लेकिन
विधानसभा चलती रहे ,लेकिन
क्या ये डेमोक्रेसी के सिद्धान्त
के खिलाफ नहीं है कि मैंने जिस
पार्टी के खिलाफ वोट दिया ,आप
उसकी सरकार बना देंगें ।
कृष्णमूर्ति
- फिक्सड
टर्म एक बेहतर रास्ता हो सकता
है और मैं नहीं समझता कि ये
डेमोक्सी की मूल भावना के
खिलाफ है क्योंकि नई सरकार
भी विधानसभा या संसद के चुने
हुए लोग ही तय करेंगें जिन्हें
आपने और मैने ही चुनकर भेजा
है तो इससे नई व्यवस्था और
सरकार मिल पाएगी ।
इससे दल बदल
करने या सरकारों को कमज़ोर
करने की कोशिश करने वालों के
मंसूबें भी पूरे नहीं हो पाएंगे
।
सवाल - चुनावी
व्यवस्था में सुधार के लिए
एक सुझाव था शायद आपका ही कि
वोटिंग मशीन में नन आफ द अबोव
की व्यवस्था की जाए ताकि जब
आपको कोई उम्मीदवार पसंद नहीं
हो तो तब भी आप अपनी राय ज़ाहिर
कर सकें ।
कृष्णमूर्ति
- ये
एक उपयोगी सुझाव हो सकता है
, मैंने
भी मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर
भी ये सुझाव रखा था लेकिन
सरकारें इसके लिए तैयार नहीं
।उनको लगता है कि यदि 50
फीसदी
वोट ऐसे ही पड़ गए तो फिर चुनाव
दोबारा करना पड़ेगा ।
इससे
क्या फर्क पड़ता है ये हर सीट
पर तो होने वाला नहीं और इसका
सबसे बड़ा फायदा ये होगा कि
पालिटिकल पार्टिज़ भविष्य
में उम्मीदवार मैदान में
उतारते वक्त ध्यान रखेंगी ।
सवाल-
राइट
टू रिकाल की बात भी काफी दिनों
से चल रही है क्या आपको लगता
है कि हिंदुस्तान में ऐसा कर
पाना मुमकिन है ।
कृष्णमूर्ति
- हां,
ये भी
अच्छा रास्ता हो सकता है क्योंकि
जो लोग परपोर्म नहीं कर रहे
उन पर नज़र रखने के लिए ऐसा
किया जा सकता है । बहुत से चुने
हुए नुमाइंदे चुनाव के बाद
फिर से अपने विधानसभा या संसदीय
क्षेत्र में जाते तक नहीं ।
इसके लिए उन्हें ढाई साल का
वक्त दिया जाए और फिर भी काम
नहीं करते हैं तो राइट टू रिकाल
का इस्तेमाल किया जाए । मैं
समझता हूं कि अगर एक दो क्षेत्रों
में भी ऐसा हो जाएगा तो काफी
सुधार होगा सिस्टम में ।
सवाल- अभी
पिछले हफ्ते ही चुनाव आयोग
ने सभी दलों की एक बैठक बुलाई
थी फ्री बी को लेकर यानी चुनावों
में मुफ्त चीज़ें बांटने की
घोषणाएं करने को लेकर ,लेकिन
बीएसपी के अलावा सभी ने इसका
विरोध किया ।
कृष्णमूर्ति
- इसमें
दो मसले हैं पहली बात यदि
राजनीतिक दल सभी के फायदे के
लिए कोई ऐलान करते हैं अपने
घोषणापत्र में जैसे गांव के
लिए स्कूल, बांध
, सड़क
या फिर कोई ऐसी ही चीज़ बनाने
को लेकर तो ठीक है ,
लेकिन यदि
किसी सेक्शन आफ सोसायटी के
लिए कोई ऐलान करते हैं तो उसे
रिश्वत माना जाना चाहिए मास
ब्राइब . कि
आप किसी को साइकिल बांट रहे
हैं या लैपटाप या फिर कुछ और
,क्योंकि
ये सबके फायदे के लिए नहीं हैं
और आप किसी खास तबके को खुश
करना चाहते हैं ।
सवाल - हमारी
मौजूदा चुनाव व्यवस्था को
लेकर अक्सर कहा जाता है कि
इसमें बहुमत जिसे रिजेक्ट कर
रहा है , आप
उसे हमारा नुमाइंदा बनाते
हैं , मसलन
60 फीसदी
लोग वोट डालते हैं और यदि एक
सीट पर दस उम्मीदवार हों तो
जीतने वाले उम्मीदवार को औसतन
15 फीसदी
लोगों का वोट मिला होगा यानी
जिसे 85 फीसदी
लोगों ने पंसद नहीं किया वो
मेरा नेता हो गया ।
कृष्णमूर्ति
- हां,
बिलकुल
ठीक बात है ,इसलिए
मैं उन्हें संसदीय क्षेत्र
या विधानसभा का नुमाइंदा नहीं
कहता बल्कि सेक्शन आफ सोसायटी
का रिप्रेजेन्टेटिव मानता
हूं क्योंकि उसे 15
से 20
फीसदी
से ज़्यादा लोगों ने वोट नहीं
दिया है ।
मैं समझता हूं कि
हमारा मौजूदा इलेक्शन सिस्टम
आउट लिव्ड हो गया है तो अब नए
सिस्टम को अपनाने या उसको तलाश
करने की ज़रुरत है । अभी दुनिया
के दूसरे मुल्कों में बहुत
से इलेक्शन सिस्टम चल रहे हैं
उस पर बहस की जा सकती है और फिर
बेहतर को अपनाया जा सकता है
।
सवाल-
एक बहस
और चल रही है कि क्या हमें
पार्लियामेंट्री सिस्टम पर
ही चलना चाहिए या प्रेसिडेंशियल
फार्म आफ इलेक्शन पर जाना
चाहिए अमेरिका की तरह ।
कृष्णमूर्ति
- मेरे
हिसाब से दोनों ही सिस्टम
अच्छे भी हैं और दोनों की कुछ
कमियां भी हैं ,लेकिन
सबसे अहम बात ये है कि किसी भी
सिस्टम को अपनाने से बेहतर
नेता नहीं मिलेंगें .
उसके
लिए हमें बेहतर उम्मीदवार
उतारने होंगें ।
अच्छे लोग
जब तक चुनावी मैदान में नहीं
आएंगें तब तक कोई भी सिस्टम
को अपनाने से कोई बड़ा बदलाव
नहीं होने वाला ।सवाल ये है
कि क्या हमारी पालिटिकल पार्टिज़
इसके लिए तैयार हैं ।
आखिरी
सवाल – आपके ज़माने से या यूं
कहें उससे भी पहले से चुनाव
आयोग चुनाव सुधारों के लिए
कोशिश करता रहा है ,
सुझाव
भेजता रहा है और ये ज़्यादातर
सुझाव उसके अपने पालिटिकल
मास्टर्स यानी नेताओं के खिलाफ
होते हैं तो क्या कोई बदलाव
की उम्मीद की जा सकती है ।
कृष्णमूर्ति
- आज़ादी
के बाद से अब तक बहुत से बदलाव
आए हैं और चुनाव सुधारों पर
काम हुआ है । ज़रुरत है राजनीतिक
इच्छाशक्ति की ,
पालिटिकल
विल की यदि सरकार में इच्छाशक्ति
है तो वो चुनाव सुधार कर सकती
है ।
बदलाव
ला सकती है और अगर नहीं तो हर
बार आम सहमति का बहाना काम में
लिया जा सकता है ,
मैं
समझता हूं कि हर मुद्दे पर आम
सहमति सिर्फ एक एक्सक्यूज़
यानी बहाने के सिवाय कुछ नहीं
।
समाप्त
, विजय
त्रिवेदी
सौजन्य- राजस्थान पत्रिका
No comments:
Post a Comment