विजय
त्रिवेदी
चलाओ ना बाण रे .....
पिछले
दिनों हिमेश रेशमिया का एक
गाना बड़ा हिट हुआ था -
चलाओ ना नैनो
से बाण रे , जान
ले लो रे,जान
रे ,लेकिन
आजकल हिंदुस्तान की राजनीति
में ज़ुबानी बाणों की बरसात
हो रही है और हर कोई बिना देखे
चारों तरफ बाण चला रहा है ।
उनके जवाब में चारों तरफ से
बाण चल रहे हैं । बाण चलते हैं
तो भले ही बिना निशाने के चलाए
गए हों , कुछ
ना कुछ लोग तो घायल हो ही जाते
हैं , सो
घायल हो रहे हैं और इससे खुद
को तीरंदाज़ मानने वाले लोग
अपनी पीठ
ठोंक रहे हैं कि उनके
तीर निशाने पर जा कर लग रहे
हैं ।
वैसे अर्जुन भी खुद
ही मानते हैं ,अभी
तो महाभारत में तय नहीं हुआ
है कि पांडव और कौरव कौन कौन
है ।यानी वे पहले स्वंयभू
पांडव बन गए हैं और धर्मयुद्ध
का शंखनाद कर रहे हैं ,फिर
पांडवों में श्रेष्ठ धनुर्धर
मान लिया है खुद को और गांडीव
उठाने की भूमिका में आ गए हैं
,लेकिन
यहां गांडीव ज़ुबानी है और
युद्द हकीकत में,तो
क्या ज़ुबानी गांडीव हकीकत
में युद्ध में जीत दिलाने में
कामयाब हो सकता है ।
स्वंयभू
अर्जुन की जब से ताजपोशी हुई
है तब से उन्होंने पूरी गंभीरता
और ज़िम्मेदारी के साथ इस
युद्द को जीतने का काम ना केवल
अपने कंधों पर ले लिया है बल्कि
उन्हें विश्वास भी है कि जिस
तरफ वे होंगे जीत स्वंय श्रीमाल
उनके गले में डालेगी ।युद्द
की पहली रणनीति उन्होनें इस
आधार पर बनाई है कि जिस के नाम
को लेकर जितना ज़्यादा हंगामा
होगा यानी जितने ज़्यादा लोग
जिसके खिलाफ होंगें वो ही
पार्टी का नेता माना जाएगा
।
पार्टी में भीष्म पितामह को
वे शरशैय्या पर सुलाने की
तैयारी कर रहे हैं और सामने
वाली सेना को पहले स्तर पर
ज़ुबानी बाणों से भेदने की
कोशिश में लग गए हैं ।इसलिए
अर्जुन ने पहले दंगों को निशाना
बनाया क्योंकि अब तक तो वे
उसको लेकर निशाने पर रहे हैं
,
आहत
हैं , शरीर
भेदा जा चुका है हर तरह के बाणों
से । उन्होंने दंगों पर अफसोस
ज़ाहिर नहीं किया ,
करना ही नहीं
था ,क्योंकि
वे मानते हैं कि अफसोस ज़ाहिर
करने का मतलब है अपनी सेना के
उत्साह और कान्फींडेस को कम
करना ।
दंगों का शब्द उनके
लिए हर हर महादेव जैसा है जब
भी सेना को नींद आने लगे या
युद्द अपने पक्ष में कमज़ोर
पड़ता दिखे तो दंगों के नारे
को आगे बढ़ा दो । फिर जब लगा
कि दंगों से भी माहौल नहीं बन
पा रहा तो हर दिन अस्मिता का
दावा करने वालों ने अपने ही
लोगों की अस्मिता को निशाना
बना लिया । ज़ुबान पर कुत्ता
शब्द कैसे फिसला,
जान बूझ कर
आया या शरारत में वे ही जाने
लेकिन ड्राईविंग सीट के पीछे
बैठकर उन्हें पिल्ले को मारने
की भी तकलीफ हुई । तो क्या वे
ये मानने को तैयार हैं कि दंगों
के वक्त वे ड्राईविंग सीट के
पीछे बैठे थे,
अक्सर
उसी के इशारे पर ड्राईवर अपना
रास्ता तय करता है ,जिसे
हम आमतौर पर गाड़ी मालिक कहते
हैं ।
कुत्ते
के ज़िक्र से उठा हंगामा अभी
थमा नहीं था ,उन्हें
लगा कि कहीं बुझ ना जाए तो अगले
दिन बुर्का शब्द का इस्तेमाल
हुआ , धर्म
निरपेक्षता का बुर्का
,सेक्यूलरिज़म
का बुर्का । सेक्यूलरिज़्म
अगर निशाने पर था और सेक्यूलरिज़्म
की आड़ पर निशाना था तो बुर्का
क्यों,पर्दा
क्यों नहीं ,क्या
बु्र्का और पर्दा,में
से बुर्का इस्तेमाल करने की
कोई खास वज़ह रही होगी । सवाल
यहां स्वंयभू का ही नहीं है
,दूसरी
तरफ कांग्रेस की सेना तैयार
हैं , वहां
आजकल बहुत से सेनापति हैं जो
प्रमुख सेनापति बनने की कतार
में हैं ,इसलिए
दूसरी तरफ से एक तीर चलते ही
उन्होंने अस्त्र शस्त्र संभाल
लिए और शुरु कर दिया वाक युद्ध
। मानो स्वंयभू को घायल करना
या निशाना बनाना ही ज़िंदगी
का इकलौता मकसद है ।
समझ नहीं
आ रहा कि कौन किसके लिए जाल
बिछा रहा है , कौन
किसके जाल में फंस रहा है ।
कभी कभी लगता है कि दोनों ही
तरफ से जाल बिछाया जा रहा है
लेकिन एक दूसरे को फंसाने के
लिए नहीं बल्कि जनता को ,
वोटर
को फंसाने के लिए ।
वाकयुद्ध
में सेक्यूलरिज़म और साम्प्रदायिकता
का नतीजा एक ही है चाहे आप
साम्प्रदायिकता के बहाने
लड़ाई शुरु करें या सेक्यूलरेज़िम
के नाम पर , दोनों
ही हालात में ध्रुवीकरण होना
ही है और ध्रुवीकरण होगा तो
दोनों को फायदा होगा ,घायल
तो बीच में फंसा आम आदमी होगा
और छोटे छोटे क्षेत्रीय राजनीतिक
दल इस लड़ाई से बाहर हो जाएंगें
।
दोनों बड़े राजनीतिक दलों
की
ये साज़िश लगती है कि क्षेत्रीय
दलों की आवाज़ कहीं दब कर रह
जाए क्योंकि जब साम्प्रदायिकता
मुद्दा बनेगी तो फिर क्षेत्रीय
मु्द्दे और दूसरे ज़रुरी
मुद्दे गौण हो जाएंगें जिसका
फायदा दोनों बड़ी पार्टियों
को मिलना है क्योंकि एक पार्टी
सत्ता में बैठी है और उसके
खिलाफ लोगों में भारी नाराज़गी
दिखाई दे रही है तो दूसरी पार्टी
दरवाज़े के बाहर खड़ी होकर
सत्ता की तरफ ललचाई निगाहों
से देख रही है लेकिन उसके पास
देश को आगे बढ़ाने का कोई प्लान
नहीं है । बीजेपी के एक बड़े
नेता ने ठीक बात कही है कि इससे
असली मुद्दे बहस से गायब हो
रहे हैं ।
पिछले
एक पखवाड़े से असली मुद्दे
गायब हो गए हैं । मंहगाई जिस
कदर दिनों दिन बढ़ रही है उससे
आम आदमी का जीना मुहाल हो रहा
है । मौजूदा सरकार पर भ्रष्टाचार
के आरोपों की लंबी लिस्ट है
।
सरकार ने भ्रष्टाचार
को रोकने के लिए लोकपाल बिल
पर कोई ठोस काम नहीं किया है
।विदेश नीति में चीन जिस तरह
लगातार हमारे मुल्क की सीमा
में दखल बढ़ाता जा रहा है ,उस
पर सरकार ने कोई कड़े तेवर
नहीं दिखाए हैं ।
संसद के सत्र
लगातार छोटे होते जा रहे हैं
। मानसून सत्र को जल्दी बुलाने
के बजाय उसे और देरी से कर दिया
गया है और उसमें भी बैठकें कम
होंगी लेकिन विपक्ष का ज़ोर
उस पर नहीं हैं क्योंकि हमाम
में दोनों बड़ी पार्टियों के
हाल एक जैसे ही हैं और दोनों
ही संसद का सामना करने से बचते
हैं ।
सत्ताधारी पार्टी संसद
के सत्र की बैठकें कम रखती है
तो विपक्षी पार्टी संसद को
चलने ही नहीं देती और लगातार
हंगामें में स्थगन होता है
तो इसे नूरा कुश्ती नहीं माना
जाना चाहिए ।
ऐसा
नहीं है कि इस तरह का वाकयुद्ध
पहली बार हो रहा है ।राहत इंदौरी
साहब का एक शेर है -
सरहदों
पर बहुत तनाव है क्या,
कुछ
पता तो करो कि चुनाव है क्या
।।
अक्सर
चुनावों से पहले राजनीतिक दल
ऐसी नूरा कुश्ती में लग जाते
हैं चाहे फिर वो तमिलनाड के
चुनाव में एआईडीएमके और डीएमके
के बीच बयानबाज़ी हो या फिर
यूपी में समाजवादी पार्टी और
बीएसपी के बीच का तमाशा हो ।
इस तरह के बयानों और वाकयुद्ध
से राजनीतिक दल अपनी ज़िम्मेदारियों
से बच जाते हैं और अहम मुद्दे
गौण हो जाते हैं जिनकी जवाबदेही
हमारे नुमाइंदों पर होती है
।तो सवाल ये है कि क्या हम हमेशा
दर्शक बने रहेंगें और किसी
भी तमाशे को देखने के लिए तैयार
रहेंगें ।
मुंबई में बालीवुड
की दिशा तो आजकल हम तय करने
लगे और प्रोड्यूसर डायरेक्टर
सौ बार सोचते हैं फिल्म बनाने
से पहले कि उसके दर्शक को क्या
चाहिए,लेकिन
हम राजनेताओं पर ऐसा दबाव
बनाने में क्यों कामयाब नहीं
हो पा रहे कि वे वोटर के एजेंडा
पर चलने के लिए मजबूर हों ना
कि वोटर उनके एजेंडा का तमाशबीन
बन जाए और वो जादूगर की तरह
आपकी आंखों से काजल चुरा कर
ले जाए और आपको अहसास भी ना हो
।मुनव्वर राणा साहब का एक शेर
याद आ रहा है -
सियासत
किस हुनरमंदी से सच्चाई छुपाती
है ,
कि
जैसे सिसकियों का जख्म शहनाई
छुपाती है ।
समाप्त
, विजय
त्रिवेदी
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